"हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस
हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
"हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस
हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त
लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव
में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद
नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे
सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
Wednesday, September 16, 2009
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1 comment:
Thanks for this poem.. a great poem..
I heard this poem long ago when Shatrughan sinha was reciting this in an interview..
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